
खूबसूरत जंगलों और आदिवासी संस्कृति में रंगा जिला बस्तर छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी के तौर पर जाना जाता है, जो किसी समय दक्षिण कोसल के नाम से प्रसिद्ध था। 39114 वर्ग कि.मी. में फैला बस्तर एक समय में जिला भी था और संभाग भी । आज भी संभागीय मुख्यालय जगदलपुर में ही है।
यह संभाग केरल जैसे राज्य और बेल्जियम तथा इज़राइल जैसे देशों से भी बड़ा था। जिले का संचालन व्यवस्थित रूप से हो सके इसलिए वर्ष 1999 में इसमें से दो अलग जिले कांकेर और दंतेवाड़ा बनाए गए। जिले की करीब 70 प्रतिशत आबादी गोण्ड, मारिया-मुरिया, ध्रुव और हलबा जाति की है।
उड़ीसा से शुरू होकर दंतेवाड़ा की भद्रकाली नदी में समाहित होने वाली करीब 240 कि.मी. लंबी इंद्रावती नदी बस्तर के लोगों के लिए आस्था और भक्ति की प्रतीक है।
ऐतिहासिक रूप से बस्तर क्षेत्र रामायण में दण्डकारण्य नाम से और महाभारत में कोसल साम्राज्य के भाग के रूप में वर्णित है।
सन् 450 ईस्वी में बस्तर क्षेत्र में नल राजा भवदत्त वर्मन का शासन था। सन् 1324 ईस्वी में काकतीय वंश के महाराजा अन्नमदेव द्वारा बस्तर का शाही साम्राज्य स्थापित किया गया । महाराजा अन्नमदेव के बाद महाराजा हमीरदेव, बैताल देव, महाराजा पुरुषोत्तमदेव, महाराज प्रताप देव, दिकपालदेव एवं राजपालदेव ने शासन किया।
बस्तर शासन की प्रारम्भिक राजधानी बस्तर शहर में बसायी गयी, फिर जगदलपुर शहर में स्थानान्तरित की गयी। बस्तर में अंतिम शासन महाराजा प्रवीरचन्द्र भंजदेव (1936-1948) ने किया ।
महाराजा प्रवीरचन्द्र भंजदेव बस्तर के सभी समुदाय के लोकप्रिय शासक थे। बस्तर का जिला मुख्यालय जगदलपुर, राजधानी रायपुर से 305 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। इंद्रावती नदी के मुहाने पर बसा जगदलपुर सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण नगर है, जो चारों ओर से पहाड़ियों एवं घने जंगलों से घिरा है।
काकतीय राजा जिसे पाण्डवों का वंशज कहा जाता है, ने जगदलपुर को अपनी अंतिम राजधानी बनाया एवं इसे विकसित किया । पहले इसका नाम में जगतुगुड़ा था। इसे चौराहों का शहर भी कहा जाता है और यह बहुत ही खूबसूरत तरीके से बसाया गया है। यहाँ विभिन्न संस्कृतियों का संगम है। बस्तर का भव्य दशहरा बहुत मशहूर है, जिसे देखने के लिए देश-विदेश से अनेक पर्यटक आते हैं।
01 राजमहल
जगदलपुर के राजमहल की दीवारें लकड़ी और मिट्टी की तथा छत खपरैल से निर्मित हुआ करती थी। इसे मजबूती देने का काम राजा रूद्रप्रताप देव के काल में हुआ। महल लम्बी-चौड़ी ईंट की दीवारों से घिरा है। किले का मुख्य द्वार दक्षिण दिशा में है, जिसे सिंहद्वार भी कहा जाता है। राजमहल परिसर की चारदीवारी की सभी दिशाओं में प्रवेशद्वार बनवाया गया है। परिसर के भीतर पूर्वाभिमुख भव्य मोती महल निर्मित है। सिंहद्वार के समीप ही प्राचीन दंतेश्वरी माता का मंदिर है। राजा भैरमदेव काल के काष्ठशिल्प तथा प्रवेशद्वारों पर उकेरे गए दशावतारों के चित्रों को यथावत रखते हुए मंदिर की भव्यता बढ़ाई गई। मंदिर के गर्भगृह में सफेद प्रस्तर से निर्मित दंतेश्वरी देवी की सुंदर प्रतिमा स्थापित है। मंदिर के सामने राजा प्रवीरचंद की प्रतिमा भी है। पर्यटकों के लिए राजमहल का एक ही कक्ष खुला है, जिसमें महाराजा भैरमदेव के वंशजों चित्र, कक्ष के मध्य में तीन अलंकृत कुर्सियां रखी हैं, बीच वाली कुर्सी में अंग्रेजी शासन का प्रतीक विक्टोरिया क्राउन अंकित है। इस राजमहल की संरचना दर्शनीय है। दशहरा के समय आज भी पूरे महल की साज-सज्जा की जाती है। राजमहल देखने के लिए यही समय उपयुक्त भी है।
यह महल 25 मार्च 1966 में अंतिम राजा प्रवीरचंद भंज तथा उनके साथ सैकड़ों आदिवासियों के नृशंस हत्या का गवाह भी है। स्वतंत्रता के पश्चात प्रवीर आधुनिक बस्तर को दिशा प्रदान करने वाले महानायक बन चुके थे। स्थानीय आदिवासी उन्हें ईश्वरतुल्य समझते थे। वे जब तक जीवित रहे आदिवासियों के लिए संघर्ष करते रहे। शासन द्वारा कई बार उनको निशाना बनाया गया। 25 मार्च 1966 के दिन राजमहल के सामने का मैदान आदिम जनजातियों के परिवारों से अटा पड़ा था। बस्तर के कोने-कोने से लोग अपनी समस्या लेकर आए थे। भीड़ की इतनी बड़ी संख्या का कारण यह भी था कि नवदुर्गा त्योहार के समय आदिवासी परम्परानुसार कुछ बीज राजा को देते है, फिर उनसे वही बीज लेकर अपने खेतों में बो देते हैं। इस अवसर पर आखेट के लिए राजाज्ञा की भी परम्परा है। इसलिए इस भीड़ में धनुष बाणों की संख्या बहुत ज्यादा थी।
इसी बीच किसी आदिवासी से पुलिस की झड़प हुई जिसमें एक सूबेदार की मौत हो गई। इसके बाद पुलिस ने आनन-फानन में राजमहल परिसर को घेर लिया। जान बचाने के लिए सैकड़ों आदिवासियों ने राजमहल के अंदर शरण ली । धनुष पर बाण चढ़ गए और युद्ध की स्थिति निर्मित हो गई। पुलिस द्वारा आत्मसमर्पण कर देने की चेतावनी दी गई, जिसके बाद राजा प्रवीर ने औरतों और बच्चों को आत्मसमर्पण के लिए उत्प्रेरित किया। लेकिन उनके बाहर निकलते ही उनपर लाठियाँ बरसने लगीं। सायास अथवा गलतफहमी में, स्थिति जो भी निर्मित हुई हो, पुलिस के इस हमले में राजमहल के भीतर सैकड़ों आदिवासियों के संग उनके प्रिय राजा प्रवीरचंद भंज भी मारे गए।
आज भी राजा प्रवीरचंद भंजदेव आदिवासियों के मध्य भगवान की तरह पूजित हैं। महल के दरबार कक्ष में देवी- देवताओं के चित्र के साथ उनका चित्र भी लगा है। वर्तमान में महल के ऊपरी हिस्से में महारानी निवास करतीं हैं।
02 दलपतसागर झील
जगदलपुर में स्थित दलपत सागर झील छत्तीसगढ़ की सबसे बड़ी कृत्रिम झीलों में से एक है। इंद्रावती नदी के जलस्रोत से निर्मित इस झील का निर्माण 4 सौ साल से भी पहले दलपत देव काकतीय द्वारा वर्षा जल के संग्रहण के लिए करवाया गया था। यह तालाब करीब 385 एकड़ में फैला हुआ है। इस झील के केंद्र में स्थित टापू पर भूपालेश्वर महादेव का मंदिर स्थापित है। इस शिवालय का निर्माण 1842 ईस्वी के बाद तत्कालीन बस्तर नरेश भूपाल देव ने रानी वृन्दकुंवर बघेलिन की प्रेरणा से करवाया था। शिवालय तक नाव से ही पहुंचा जा सकता है। टापू पर नारियल के पेड़, एक प्रकाश स्तम्भ और संगीतमय फव्वारा भी है। कई सैलानी यहाँ सिर्फ सूर्यास्त देखने आते हैं। यहाँ मोटरबोट के साथ पैडलबोट से सैर की सुविधा उपलब्ध है। टापू पर लगी पवनचक्की पर्यटकों को आकर्षित करती है। शाम के समय यहाँ अच्छी खासी भीड़ होती है। झील के आसपास लगे बाँस, शीशम, नारियल और सागौन जैसे पेड़ों की हरियाली और पहाड़ों के अद्भुत दृश्य पर्यटकों को आकर्षित करता है।
03 गंगा मुंडा तालाब
गंगामुंडा तालाब शहर का सबसे बड़ा दूसरा तालाब है। इन्द्रावती नदी और महादेव घाट के अलावा छठ पर्व पर पूर्वांचल के लोग यहाँ भी उगते सूर्य को अर्घ्य देते हैं। यह आमोद-प्रमोद के लिए एक लोकप्रिय स्थान है। नगर निगम द्वारा इसके विकास की योजना पर काम किया जा रहा है।
04 मानवशास्त्रीय संग्रहालय
जगदलपुर में सन् 1972 में स्थापित इस संग्रहालय का मूल उद्देश्य बस्तर तथा सीमा से लगे रायपुर-दुर्ग जिलों सहित, आंध्र प्रदेश, ओड़िसा एवं महाराष्ट्र के आदिवासी जनजीवन के आपसी प्रभावों का अध्ययन करना है। इस संग्रहालय में बस्तर की विभिन्न जनजातियों के दैनिक जीवन में उपयोग होने वाली वस्तुओं सहित संस्कृति, संस्कारों, भावनाओं और मनोरंजन के रूप में काम आने वाली वस्तुओं को संग्रहित किया गया है। इसके अलावा इन्हें छायाचित्रों के माध्यम से भी दर्शाया गया है। इस संग्रहालय में संग्रहित कुछ वस्तुएं अत्यंत दुर्लभ हैं, जैसे- लुप्त हो चुके वाद्ययन्त्र, मुखौटे, पेंटिंग, पुराने ज़माने के जूते, कपडे और टोपियाँ आदि। यह जगदलपुर शहर के केंद्र से लगभग 4 कि.मी. की दूरी पर स्थित है एवं छत्तीसगढ़ के शीर्ष पर्यटन स्थलों में से एक है। यह संग्रहालय छात्रों एवं शोधकर्ताओं के लिए अत्यंत उपयोगी है।
05 शहीद पार्क
शहीद पार्क जगदलपुर के हृदय स्थल में स्थित एक मनोरम स्थान है। यहाँ बच्चों के लिये बाल उद्यान एवं रेलगाड़ी की व्यवस्था है। साथ ही एक विशाल स्केटिंग रिंग युवाओं को आकर्षित करती है। परिवार के साथ फुरसत का वक्त बिताने के लिए यह स्थान एक सुंदर विकल्प है।
06 जिला पुरातत्व संग्रहालय
इस संग्रहालय की स्थापना वर्ष 1988 में कुम्हारपारा में किया गया। वर्ष 1992 में इसे राउतपारा क्षेत्र में स्थानांतरित कर दिया गया। पुनः वर्ष 1998 में इसे शासकीय भवन परलकोटवाड़ा में स्थानांतरित किया गया, जहाँ यह आज भी संचालित है। इस संग्रहालय की शुरूआत जिलाध्यक्ष बंगले में रखी हुई टूटी-फूटी 25 प्राचीन मूर्तियों से हुई थी। वर्तमान में यहाँ 185 दुर्लभ मूर्तियाँ हैं, जिनमें 6वीं शताब्दी की द्विभुजी विष्णु प्रतिमा तथा जिलहरी के मध्य खड़गासन में त्रिशूलधारी देवी पार्वती की मूर्ति उल्लेखनीय है।
07 सीरासार भवन
जिला पुरातत्व संग्रहालय से मात्र 100 मीटर की दूरी पर यह भवन स्थित है। इसी भवन से विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरे का संचालन होता है। यहीं नवरात्र के पहले दिन पूजन के बाद विधि विधान से जोगी बैठाई की रस्म होती है।
08 बाणसागर जलाशय तथा शिवालय
550 वर्ष पुराना यह जलाशय जिले का दूसरा सबसे बड़ा जलाशय है। यह 105 एकड़ के रकबे में फैला हुआ है। स्थानीय बुजुर्गों के अनुसार वर्ष 1465 में मधोता के बाद बस्तर को अपनी राजधानी बनाने के उपरांत राजा ने स्थानीय निवासियों के सहयोग से इस जलाशय का निर्माण करवाया था। इसी जलाशय के किनारे प्राचीन बस्तर शिवालय स्थित है।
बस्तर तहसील के बस्तर नामक ग्राम में यह मंदिर एक ढलवां आधार पर मड़ईभांठा और बाणसागर जलाशय के मध्य स्थापित है। यह शिव मंदिर लगभग 11वीं-12वीं शती में निर्मित है। इस मंदिर में मण्डप तथा गर्भगृह दो अंग है। पिरामिडनुमा गर्भगृह छोटे से आमलक से घिरा हुआ है, जिसमें शिवलिंग स्थापित है। इस शिवलिंग को स्वयंभू माना जाता है। मण्डप के ऊपर समतल छत है। हाल ही में केन्द्रीय पुरातत्व विभाग द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार किया गया है। मान्यता है, कि यहाँ निःसंतान दम्पत्तियों की मनोकामना पूरी होती है। इस शिववालय में शिवरात्रि के स्थान पर प्रति वर्ष माघ महीने में गंगादई मेला लगता है। मंदिर के आसपास पुरातात्विक महत्व की अनेक मूर्तियाँ बिखरी पड़ी हैं।
09 शांतिनाथ की प्राचीन प्रतिमा, भाटागुड़ा
जिला मुख्यालय से 7 किलोमीटर दूर इंद्रावती नदी के तट पर ग्राम भाटागुड़ा में एक इमली के पेड़ के नीचे जैन धर्म के सोलहवें तीर्थकर शांतिनाथ तथा देवी लक्ष्मी की दुर्लभ प्रतिमा रखी हुई है। अनभिज्ञ ग्रामीण इन्हें बेताल तथा कोटगुड़िन देवी के रूप में पूजते हैं तथा हर तीसरे साल इनके समक्ष बलि देते हैं।
जैन धर्म के अनुयायियों का कहना है कि प्रतिमा के निचले हिस्से में मृग अंकित है इसलिए इन्हें भगवान शांतिनाथ माना जाना चाहिये । काले ग्रेनाइट से निर्मित भगवान शांतिनाथ की प्रतिमा लगभग 3 फ़ीट ऊंची है तथा देवी लक्ष्मी की प्रतिमा बलुआ पत्थर से निर्मित है तथा डेढ़ फ़ीट ऊंची है। पिछले अनेक वर्षों से दोनों प्रतिमाएं इसी प्रकार इमली के वृक्ष के नीचे स्थापित हैं। स्थानीय ग्रामीणों की इनमें अत्यधिक आस्था है।
10 गुप्तेश्वर धाम
यह धार्मिक स्थल ओड़िसा राज्य की सीमा पर राष्ट्रीय राजमार्ग 43 पर जिला मुख्यालय से लगभग 22 किलोमीटर दूर अवस्थित है। राष्ट्रीय उद्यान के माचकोट रेंज से यह सीमा लगी हुई है। यह स्थान धार्मिक महत्व का होने के साथ-साथ खूबसूरत प्राकृतिक स्थल भी है । यहाँ चूने पत्थर की एक पहाड़ी पर स्थित गुफा में शिवलिंग स्थापित है। गुफा के भीतर स्टेलेग्माइट तथा ड्रिप स्टोन की खूबसूरत संरचना है। यह स्थान गुप्तेश्वर धाम के नाम से प्रसिद्ध है। इसे गुप्त केदार भी कहा जाता है।
शिवरात्रि के अवसर पर यहां पड़ोसी राज्यों से भी अनेक श्रद्धालु पहुँचते हैं। श्रद्धालुओं कि भीड़ अधिक होने के कारण वन विभाग द्वारा कोलाब नदी के ऊपर लकड़ी एवं बाँस का अस्थायी पुल बना दिया जाता है ताकि पर्यटक यहां तक पहुँच सके । अन्य समय पर लोग नाव का उपयोग करते है।
11 चित्रधारा जलप्रपात
चित्रधारा जगदलपुर से 20 किलोमीटर दूर चित्रकोट रोड की तरफ पोटानार के पास एक छोटा सा खूबसूरत झरना है। यह कुकुर घूमर जलप्रपात के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ पहाड़ी नदी से बहता हुआ पानी एक नाले का रूप ले लेता है। इस जलप्रपात का सौन्र्दय दो सोपानो में देखा जा सकता है। पहले सोपान में यह बरसाती नाला एक गहरी और लम्बी खाई में कई हिस्सों में 50-60 फ़ीट की ऊँचाई से गिरता है और दूसरे सोपान में सौ फ़ीट की ऊंचाई से गिरकर आगे बहते हुए विशाल इन्द्रावती नदी में विलीन हो जाता है। सीढ़ीनुमा चट्टानों से गिरने वाला चित्रधारा जलप्रपात जगदलपुर से सबसे नजदीक एवं आदर्श पर्यटन स्थल है। इसके आसपास का नज़ारा अत्यंत मनमोहक है। चारों तरफ धान के हरे-भरे खेत, रंग-बिरंगे फूल, खेतों में बहता निर्मल पानी, नीले अम्बर में विचरते बादल जैसे दृश्य मन को आनंदित करते हैं।
12 टेमरा गणेश, चित्रकोट
बस्तर के चित्रकोट क्षेत्र के गाँवो में कम वर्षा होने पर या खंड वर्षा होने पर स्थानीय निवासियों द्वारा एक अनोखी रस्म निभाई जाती है। इसके तहत गाँव में भीमा-भीमीन की काष्ठ प्रतिमा पर गोबर थोपा जाता है। यह परंपरा ग्रामीण सदियों से निभाते आ रहे है। चित्रकोट के पास नागयुगीन टेमरा गाँव है। इस गाँव के तालाब के पास गणेश जी की 4 फ़ीट ऊँची और 1 हज़ार साल पुरानी प्रतिमा स्थापित है। टेमरा के निवासी भी, बरसात के मौसम में जब भी कम वर्षा होती है और धान की रोपाई नहीं हो पाती, तब गणेशजी को पूरी तरह से गोबर से लीप देते हैं। गोबर गणेश करने की प्रथा के पीछे तर्क है कि गणेश जी एवं भीमा- भीमीन देव अपने तन पर लगे गोबर को साफ करने के लिये घनघोर वर्षा कराएंगे, जिससे खेती के लिये पर्याप्त वर्षा भी हो जायेगी। खुले में रखी गणेश जी की प्रतिमा पूरी तरह घिस चुकी है। नैन-नक्श साफ नहीं है।
13 शिवमंदिर, छिंदगांव
बागलकोट, कर्नाटक के सिन्द नागवंशी सामंतो ने आठवीं सदी के मध्य चक्रकोट में अपनी सत्ता कायम की । नाम में अपभ्रंश के कारण सिन्द शाखा सेन्द्रक और बाद में छिंदक नाग वंश के रूप में जानी गई। कालांतर में सिंदो का गांव सिंदगांव, छिंदगांव के नाम से जाना गया, जो इंद्रावती के तट पर बसा हुआ है. यह एक महत्वपूर्ण गढ़ था, जिसके अवशेष तो अब नहीं हैं, किन्तु एक जीर्ण-शीर्ण मंदिर नागों के इतिहास को संजोये हुए अपनी अंतिम सांसे गिन रहा है। शिव को समर्पित इस मंदिर की स्थिति इतनी दयनीय हो गयी है कि एक हल्के झटके से पूरा ढांचा भरभराकर गिर सकता है ।
अनुमानत: 12 वीं शती का यह मंदिर एक ऊंची जगती पर बना है। मंदिर गर्भगृह, अंतराल और मंडप में विभक्त था। मंडप के सभी स्तंभ गिर चुके है। अब मात्र गर्भगृह ही शेष है। गर्भगृह के बाहर भगवान गणेश की प्रतिमा रखी हुई है। द्वार के ललाट बिंब पर नृत्य गणेश की प्रतिमा अंकित है। छः सीढ़ियां उतर कर गर्भगृह में प्रवेश किया जा सकता है, जिसमें शिवलिंग प्रतिष्ठित है। ग्रामीण इसकी पूजा गोरेश्वर महादेव के नाम से करते है।
इस मंदिर के पास ही स्थानीय ग्रामवासियों ने एक नया मंदिर बनवाया है, जिसमें देवी कंकालीन की प्राचीन प्रतिमा स्थापित है। मंदिर में भगवान नरसिंह की खंडित प्रतिमा भी रखी हुई है। हिरण्यकश्यपु का वध करते हुये भगवान नरसिंह के मुख पर दिव्य आभा दिखाई देती है। इस नये मंदिर में सागौन की एक तख्ती दीवार पर टंगी हुई है, जिस पर अंग्रेजी और हिन्दी में बस्तर दरबार की राजाज्ञा अंकित है।
छिंदगांव की प्रतिमाओं के संरक्षण के लिये सन् 1942 ई. में यह राजाज्ञा जारी की गई थी, जिसके अनुसार किसी को भी इन प्रतिमाओं को छूने की मनाही है। तब से अब तक राज परिवार के प्रति श्रद्धा के कारण ग्रामीण आज भी इस राजाज्ञा का पालन करते आ रहे है। प्रतिमाओं की सुरक्षा का दायित्व भी यहां के ग्रामीण ही उठाते आ रहे है। बताया जाता है, कि इस मंदिर में एक शिलालेख भी था जो कि मंदिर के प्रस्तर अवशेषों में दब गया है। इस मंदिर में हर साल जात्रा का भी आयोजन होता है। मंदिर परिसर में शीतला माता का मंदिर भी बना हुआ है। छिंदगांव चित्रकोट रोड में उसरीबेड़ा से पहले 5 किलोमीटर अंदर की तरफ है। पक्की सड़क मंदिर तक गई हुई है। मुख्य सड़क से छिंदगांव तक पहुंचने का मार्ग भी मनोरम है। दूर तक फैली पर्वतमाला और छीन्द के पेड़ मन को आनंदित करते हैं।
14 शिव मंदिर, सिंघईगुड़ी (घुरमुण्डापारा)
जगदलपुर से 36 कि.मी. दूर चित्रकोट गांव के घुरमुण्ड पारा में यह शिवमंदिर स्थित है। इस पूर्वाभिमुखी मंदिर में गर्भगृह है, जिसमें वर्गाकार जलाधारी पर शिवलिंग स्थापित है। अनुमान है, कि इस शिव मंदिर का निर्माण 11वीं-12वी शती के मध्य छिन्दक नागवंशीय राजाओं के शासनकाल में हुआ होगा।
15 तामड़ा घूमर जलप्रपात
जगदलपुर से चित्रकोट जलप्रपात के रास्ते में चित्रकोट से 3 कि.मी. पहले एक मार्ग मारडूम के लिए मुड़ जाता है, जिसके समीप स्थित है बिनता घाटी । यहाँ तामड़ा नामक एक पहाड़ी नाला सौ फ़ीट की ऊँचाई से गिरकर खूबसूरत जलप्रपात का निर्माण करता है। यह तामड़ा घूमर या मयूरा घूमर के नाम से जाना जाता है। स्थानीय बोली में तामड़ा का अर्थ मयूर होता है। तामड़ा नाले का उद्गम यहाँ से 22 कि.मी. दूर नागा तोका के पास स्थित मादला डोंगरी से होता है। यह जलप्रपात नीचे गिरकर एक बड़े जलाशय का रूप ले लेता है। यहाँ से जलधारा बहती हुई घने जंगलों से गुजरकर इंद्रावती नदी में समा जाती है। लगभग मध्य ऊँचाई पर जलप्रपात के पीछे चट्टान एक गुफा के रूप में कई फीट भीतर धंसी हुई है। नीचे और उतरने पर जलकुण्ड बना है, जिसमें ग्रामीणों के कथनानुसार मगरमच्छ रहते हैं।
16 किला अवशेष, चित्रकोट
चित्रकोट से लगे कच्चे मार्ग पर कुछ ही दूरी पर राजा हरिश्चंद्रदेव के किले का अवशेष आज भी देखा जा सकता है। पहले यहाँ किले का बड़ा सा हिस्सा विद्यमान था, जो काल के थपेड़ों में धूल-धूसरित हो गया। पत्थरों से निर्मित किले की दीवार का केवल एक भाग वर्तमान में शेष है क्योंकि वह विशालकाय बरगद के वृक्ष के साये में है। इस अवशेष से भी पत्थर निकालकर पेड़ के नीचे जमा कर दिये गये हैं। बची हुई मोटी दीवार मिट्टी से जोड़ी हुई है। इतिहासकारों के अनुसार राजा हरिश्चन्द्रदेव की पुत्री चमेली अत्यंत साहसी थी। उस पर आसक्त होकर राजा अन्नमदेव ने राजा हरिश्चन्द्रदेव के समक्ष प्रस्ताव भेजा, कि वे राजकुमारी चमेली से उनके विवाह के लिए यदि राजी हो जाते हैं, तो चक्रकोट से घेराबंदी हटा ली जायेगी। राजकुमारी ने इस प्रस्ताव को ठुकराते हुए युद्ध का मार्ग चुना। इस युद्ध में राजा हरिश्चन्द्रदेव मारे गए। इसके बाद राजकुमारी चमेली का राजतिलक किया गया।
कहते हैं, राजकुमारी चमेली अन्नमदेव से तीन दिनों तक युद्ध करती रही। पराजय निश्चित जानकर अपनी दो सखियों झालरमती तथा घोघिया नायिका के साथ आग में कूदकर उसने अपनी जान दे दी। लोहण्डीगुड़ा के निकट बेनियापाल का मैदान इस युद्ध का साक्षी है। साथ ही, यह मैदान वर्ष 1961 में हुए उस वीभत्स गोलीकांड का भी गवाह है, जिसमें राजा प्रवीर चंद भंजदेव को अपदस्थ कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। स्थानीय आदिवासी विरोधस्वरूप इसी बेनियापाल के मैदान में जुटे थे, जहाँ उन्हें घेरकर गोलियों से भून दिया गया था। किले के पास ही माँ लोहण्डी का प्राचीन मंदिर है, जिसमें देवी की 12वीं शताब्दी की प्रतिमा हैं। मंदिर परिसर में सरस्वती और गणेश प्रतिमाएं भी है, जो छिंदक नागवंशी काल की प्रतीत होती है। लोहण्डीगुड़ा का नाम इस मंदिर के नाम पर ही पड़ा है।
17 चित्रकोट जलप्रपात
जगदलपुर से 40 कि.मी. और रायपुर से 273 कि.मी. की दूरी पर स्थित यह जलप्रपात छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा, सबसे चौड़ा और सबसे ज्यादा जल की मात्रा प्रवाहित करने वाला जलप्रपात है। चित्रकोट अथवा चितरकोट में बस्तर की जीवनदायिनी इंद्रावती नदी का पानी लगभग 90 फ़ीट की ऊँचाई से भयंकर गर्जना और धुआं-सा उत्पन्न करता हुआ प्रपात बनकर गिरता है। सूर्य की किरणों के संयोग से जलकण इंद्रधनुष का निर्माण करते हैं। भारतीय नियाग्रा के नाम से प्रसिद्ध चित्रकोट जलप्रपात की बरसात के मौसम में चौड़ाई लगभग 299 मीटर हो जाती है। सात धाराओं में गिरते हुए चित्रकोट जलप्रपात की श्वेत व मोटी-मोटी धाराएं जब सतह से टकराती हैं तो कुहासा सा छा जाता है। जब सूर्य की किरणें इन जलधाराओं पर पड़ती हैं तो इंद्रधनुषी छटा छा जाती है। जलप्रपात सघन वृक्षों एवं पहाड़ियों के मध्य स्थित है, जिससे उसकी सुंदरता और बढ़ जाती है। बारिश के दिनों में जब यह पूरे वेग से गिरता है तो और मोहक नजर आता है। इसे पास से देखने के लिए सीढ़ियों का भी निर्माण किया गया है, जहाँ से फुहारों का आनंद लिया जा सकता है। परंतु ग्रीष्मकाल में यह जलप्रपात सिमटकर एक कोने में आ जाता है, पानी की धार पतली हो जाती है और नीचे की खाई छोटे से ताल सरीखा नज़र आने लगता है। सामान्य दिनों में यहाँ नौकायन भी किया जा सकता है। जलप्रपात के समीप ही 14-15वीं सदी का एक भग्न शिव मंदिर है, जिसमें उमा-महेश्वर, हनुमान, स्कंद माता, महिषासुरमर्दिनी, भैरव, योद्धा आदि की प्रतिमाएं स्थापित हैं।
यह प्रतिमाएं 13वीं से 17वीं सदी की हैं। यहाँ छत्तीसगढ़ पर्यटन मंडल द्वारा पर्यटन ग्राम विकसित किया गया है, जहाँ सैलानियों के ठहरने व खाने-पीने की व्यवस्था है। यद्यपि इनके लिए ऊँची कीमत अदा करनी पड़ती है। रोमांचक खेलों के शौकीनों के लिए यहाँ अनेक विकल्प मौजूद हैं।
18 देवरली मंदिर, ढोंढरेपाल
यह मंदिर जिला मुख्यालय जगदलपुर से बैलाडिला की ओर जाने वाले प्रमुख सड़क मार्ग पर देवरली नामक ग्राम के सीमांत में स्थित है। इस स्थान पर कभी तीन मंदिरों का समूह था। वर्तमान में बायीं ओर का मंदिर ध्वस्त हो चुका है। मंदिरों के सामने का भाग नष्ट हो चुका है। शेष बचे दोनों मंदिर शिव को समर्पित हैं। दोनों मंदिरों के गर्भगृह वर्गाकार हैं, जिसके चारों तरफ सादी भित्तियां हैं।
इन मंदिरों के सम्मुख भाग में छोटा सा अंतराल का हिस्सा शेष है। अनुमान है अंतराल के समक्ष प्रारम्भ में मंडप भी रहा होगा। उक्त दोनों मंदिरों का निर्माण काल क्षेत्रीय छिंदक नाग राजाओं के शासनकाल में लगभग 12वीं सदी ईस्वी रहा होगा। देवरली मंदिर ढोंढरेपाल ऐतिहासिक धरोहर के रूप में चिन्हित है। यहाँ से एक विश्वकर्मा की प्रतिमा भी प्राप्त हुई है।
19 मंडवा जलप्रपात
जगदलपुर से गीदम राजमार्ग पर मावलीभाठा ग्राम में यह जलप्रपात तीरथगढ़ जलप्रपात की हूबहू नकल है। आकार में यह तीरथगढ़ जलप्रपात से बेहद ही छोटा है, लेकिन उसी की तरह यह बेहद मनमोहक है। इसलिये इसे तीरथगढ़ का गुरू जलप्रपात भी कहा जाता है। मंडवा जलप्रपात में मुनगा नदी सीढ़ीनुमा चट्टानों से लगभग 70 फ़ीट नीचे गिरती है। इसके सौंदर्य को निहारने के लिये जुलाई से लेकर जनवरी तक का समय सबसे अच्छा होता है। एक बेहद अच्छे पिकनिक स्पॉट के रूप में यहां आया जा सकता है पर्यटन विभाग द्वारा यहां पहुंचने के लिए सी सी रोड, शेड और पर्यटन गुमटी का निर्माण किया गया है। मावलीभाठा के पास ही ढोंडरेपाल के प्राचीन नागयुगीन मंदिरों का भी भ्रमण किया जा सकता है। इस जलप्रपात के पास एक विश्वकर्मा मंदिर भी है।
20 शिव मंदिर, चपका
जगदलपुर से 35 कि.मी. दूर स्थित चपका एक प्राचीन ग्राम माना जाता है। यहाँ स्थित प्राचीन शिवालय राष्ट्रीय मार्ग क्रमांक 31 पर मारकंडी नदी के तट पर स्थापित है। यहाँ शिवलिंग को बाहों में भरने की रोचक परम्परा है। मंदिर के पास मार्कण्डेय ऋषि का आश्रम व धूनी है। लोक मान्यता है, कि शिव भक्त मार्कण्डेय ऋषि ने चपका में ही दुर्गा सप्तशती तथा मार्कण्डेय पुराण की रचना की थी। आश्रम में एक ऋषि प्रतिमा है। स्थानीय निवासी इसे मार्कण्डेय ऋषि मानकर पूजा करते हैं। इस स्थान पर तीन प्राकृतिक जलकुण्ड हैं, जिसे स्थानीय निवासी पातालगंगा मानते हैं। यहाँ का पानी मंदिर किनारे स्थित कुंडों से होते हुए मारकंडी नदी मिल जाता है। चपका में मंदिर परिसर तथा नदी तट पर अनेक प्राचीन मूर्तियाँ बिखरी हुई हैं। विशेषज्ञों के अनुसार यह पुरातत्व महत्व का स्थल है। यहाँ से प्राप्त मूर्तियाँ 12वीं से 13वीं शताब्दी में निर्मित हैं।
21 हाथी दरहा/ मेंदरी घूमरा
'हाथी दरहा' जगदलपुर से लगभग 45 कि.मी. दूर मेंदरी = गांव के पश्चिम में स्थित लगभग 150-200 फ़ीट गहरी एक खाई है। इसका आकार अंग्रेजी अक्षर के 'यू' जैसा है। यहाँ का मुख्य आकर्षण सौ फ़ीट की ऊँचाई से गिरने वाला 'मटनार नाले से बना प्रपात है। इस मेंदरी घूमर भी कहा जाता है।
22 गुढ़ियारी शिव मंदिर, केशरपाल
यह शिव मंदिर केशरपाल नामक गाँव में गुढ़ियारी तालाब के किनारे जगदलपुर से 40 कि.मी. की दूरी पर स्थित हैं। इस स्थान पर प्राचीन शिव मंदिर के अवशेष, उमा-महेश्वर एवं गणेश की मूर्ति दर्शनीय है। 13वीं शती ईस्वी में निर्मित इस मंदिर से प्राप्त नागरी लिपि में उत्कीर्ण एक प्रस्तर अभिलेख जगदलपुर जिला पुरातत्व संग्रहालय में सुरक्षित है।
23 पातालतोड़ शिवलिंग, देवड़ा
जिला मुख्यालय जगदलपुर से 26 कि.मी. दूर ओड़िसा की सीमा पर देवड़ा ग्राम के निकट माचकोट जंगल में प्राचीन शिवालय स्थित है। लोक मान्यता है, कि जिनके पशु जंगलों में खो जाते हैं, वे शिवजी से मनौती मांगते हैं और मवेशी के मिलने पर गाय, बैल, शेर, घोड़ा आदि की मिट्टी की प्रतिमाएं अर्पित करते हैं। किंवदंती है, कि एक गाय रोज जंगल में नियत स्थान पर अपना दूध गिरा देती थी। उत्सुकतावश जब ग्रामीणों ने उस स्थल को खोदा तो वहाँ शिवलिंग नज़र आया। उस स्थल पर बाद में श्रद्धालुओं ने शिवालय बनवा दिया। मंदिर के समीप तालाब है। कहा जाता है, कि इस तालाब में स्नान करने से कुष्ठरोग ठीक होता है। यहाँ एक नंदी मंदिर भी है। मनौती पूर्ण होने के बाद मूर्तियाँ चढ़ाने के कारण यहाँ प्रतिमाओं का विशाल संग्रह हो गया है। महाशिवरात्रि के अवसर पर यहाँ मेला लगता है।
24 आंगादेवा
बस्तर के जनजातीय समाज में विभिन्न देवी देवताओं के प्रतीक के रूप में आंगादेव, पाटदेव बनाने की प्रथा है। आंगादेव कटहल की लकड़ी से बनाया जाता है, जिसमें आठ हाथ लम्बी दो गोलाकार लकड़ियों के दोनों दोनो सिरों पर चार हाथ लम्बी गोलाकार लकड़ी बांधी जाती है। इन्हे कभी भी सीधे जमीन पर नहीं रखा जाता। इनके रखने का विशेष स्थान और चौकी होती है। ग्रामीण आंगादेव और पाटदेव को जागृत मानते हैं और इन्हें हर सम्भव खुश रखने का प्रयास करते हैं। किसी गाँव या किसी के घर में आपत्ति आने पर बाकायदा इन्हे आमंत्रित किया जाता है। चार सेवादार इन्हें कन्धों पर रख नियत स्थान तक पहुंचाते हैं। मनौती पूरी होने पर ग्रामीण आंगादेव पर चांदी के नाग, चांदी के आभूषण चढ़ाते थे। अब पुराने सिक्के चढ़ाए जाते हैं, जिसके कारण ये बस्तर में सिक्कों के चलते-फिरते संग्रहालय बन गए हैं।
25 बागमुंडी झरन, बस्तानारा
बारिश के बाद बस्तर की चारों घाटियां गुलजार हो जाती हैं और इनकी सुन्दरता सैलानियों को लुभाने लगती है। लोग घाटियों में ठहर कर इसकी खूबसूरती को निहारते हैं। इन दिनों केशकाल की बारह भांवर घाटी, बस्तानार की बंजारी घाटी, सुकमा मार्ग की जीरम घाटी और मारडूम के आगे रेका घाटी का सौन्दर्य अप्रतिम हो जाता है।
लगभग सभी घाटियां बादलों से ढंक जाती हैं, दूसरी तरफ यहां की हरियाली भी देखते बनती है। इनमें से बास्तानार की घाटी अपने में कई आश्चर्य समेटे हुए है। यहां पनेड़ा गांव के पास 'बागमुंडी झारन' नामक जलप्रपात है। वैसे तो यह एक बरसाती नाले की तरह एक सामान्य सा नाला दिखाई पड़ता है, जो बाकी मौसम में सूख जाता है, लेकिन वर्षा ऋतु में इसका सौंदर्य अत्यंत मनमोहक होता है, जिसे घाटी से गुजरते हुए निहारा जा सकता है।
26 विष्णु मंदिर, नारायणपाल
यह विष्णु मंदिर जिले के बस्तर विकासखंड में जिला मुख्यालय जगदलपुर से लगभग 80 किलोमीटर दूर स्थित है। इस मंदिर को छिंदक नागवंशी राजा धारावर्ष की रानी गुण्डमहादेवी ने सन् 1111 में बनवाया था। मध्यम ऊँचाई वाला पूर्वाभिमुखी इस मंदिर की भू-संयोजना अष्टकोणीय है तथा सप्तरथ योजना पर आधारित है। गर्भगृह, मंडप तथा अंतराल तीनों अंग सुरक्षित हैं। द्वार तथा द्वार शाखाएं अलंकृत हैं। परंतु प्रदक्षिणा पथ का अभाव है। यहाँ दो शिलालेख सुरक्षित हैं जिसमें प्रथम शिलालेख प्रथम शक संवत् 1033 (ईस्वी सन् 1110) के छिंदक नागवंशी सोमेश्वर की माता गुण्ड महादेवी का है। इसमें भगवान नारायण को नारायणपुर ग्राम तथा भगवान लोकेश्वर को भूमि दान करने का उल्लेख है। दूसरी शिलालेख खंडित है, इसमें रूद्रेश्वर मंदिर का उल्लेख है। यह मंदिर पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित है।
27 जलप्रपात, मधोता
बस्तर विकासखंड के मधोता ग्राम में ऐसे कई कुंड हैं, जहां साल के बारहों महीने पानी स्वयमेव उत्सरित होता रहता है। गांव से गुजरकर गांव के आखिरी छोर पर महादेव को समर्पित एक मन्दिर है, जो कि सन् 1979 में निर्मित है। इस मंदिर में उत्खनन से प्राप्त कई प्राचीन मूर्तियाँ हैं। मंदिर के बाहर प्रांगण में खंडित मूर्तियां रखी है। मंदिर से बायीं ओर कुछ दूरी पर स्थित नाले में, गांव के दूसरे छोर पर स्थित कुंड से बहता हुआ पानी आकर मिलता है। ठीक उसी जगह दो रमणीय जलप्रपातों का निर्माण होता है। पहला झरना जहां 10-11 फ़ीट की ऊंचाई से गिरकर सीढ़ीनुमा झरने का निर्माण करता है, वही दूसरा झरना 7-8 फ़ीट की ऊंचाई से गिरकर एक खूबसूरत छोटे से झरने का निर्माण करता है। दूसरे झरने के ठीक नीचे एक छोटी सी 5-6 मीटर लम्बी गुफा है, मगर अब तक इसके भीतर जाने का प्रयास नहीं किया गया है।
28 बोदरागढ़ का किला
जिला मुख्यालय से 34 कि.मी. दूर बस्तर विकासखंड के राजपुर गांव के वन क्षेत्र में बोदरागढ़ का किला है। लगभग 2 एकड़ में फैले इस किले में अभी भी ध्वस्त दीवारें, मुख्य द्वार और उसके निकट 23वें जैन तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति देखी जा सकती है। किले के भीतरी हिस्से में एक प्राचीन मंदिर अवशेष के सामने भगवान विष्णु और लज्जागौरी की दुर्लभ मूर्ति है। ग्रामीण विष्णु प्रतिमा को लोहरिन देवी के रूप में पूजते हैं। महल का आवासीय हिस्सा पूरी तरह ढह चुका है, लेकिन महल के रक्षक देव के रूप में भगवान गणेश और घोड़े पर सवार करनाकोटीन देव की प्रतिमा आज भी विद्यमान है। सिंहद्वार के छह खंडों में स्थापित पुरानी मूर्तियां गायब हो चुकी हैं। इतिहासकारों के अनुसार सन् 1060 के आसपास चक्रकोट के शासक जगदेक, धारावर्ष (1050-1062 ई.) की मृत्यु के बाद मधुरांतक देव ने सत्ता हथिया ली। वह एक निर्दयी राजा था। 1065 ई. के राजपुर अभिलेख से ज्ञात होता है कि नागवंशी बोदरागढ़ नरेश मधुरांतक देव ने नरबलि के लिए राजपुर नामक गांव माणिकेश्वरी देवी मंदिर को अर्पित किया था। जब यहां चालुक्य राजाओं का आक्रमण हुआ तो उस दौर के राजा-रानी की महल में हत्या कर दी गई थी। वर्ष 1774 तक यहां चालुक्य राजाओं का कब्जा रहा। इसके बाद नागपुर के भोंसले शासक यहां करीब दो शताब्दी तक रहे।
29 बस्तरिया इमली
जगदलपुर स्थित इमली मंडी एशिया की सबसे बड़ी इमली मंडी कही जाती है। यहां पूरे बस्तर संभाग से इमली की आवक होती है। इस मंडी में लगभग एक हज़ार करोड़ का सालाना कारोबार होने का अनुमान है। बस्तरिया इमली की खासियत इसकी क्वालिटी और रंग है, जो विदेशों में भी अपनी पहचान बनाए हुए है। नारायणपुर जिले से आने वाली इमली अपने बेहतर क्वालिटी के लिए विख्यात है तो लोहड़ीगुड़ा की इमली अपने रंग को लेकर लोकप्रिय है। वहीं दरभा की इमली गूदेदार और मीठे स्वाद की वजह से अन्य राज्यों में भी पसंदीदा बनी हुई है। यहां की इमली की मांग आंध्र प्रदेश, केरल, तमिलनाडू, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में तो है ही, वहीं सालाना डेढ़ सौ करोड़ के इमली का निर्यात श्रीलंका, मलेशिया, पाकिस्तान और वियतनाम जैसे दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में भी किया जाता है। ब्रिटेन में बस्तरिया इमली का पाउडर बेहद पसंद किया जाता है । बस्तर की इमली से देश के कई हिस्सों में स्टार्च पाऊडर और अगरबत्तियां बनाई जा रही हैं। रायपुर से लेकर सिकंदराबाद तक करीब एक हज़ार ट्रक इमली का बीज भेजा जाता है। इससे तैयार स्टार्च पाऊडर का उपयोग जहां कागज़ और कपड़ा उद्योग होता रहा है, वही छिलके की लुगदी से अगरबत्तियां बनाई जाती है। यहाँ तक कि रेगिस्तान के जहाज - ऊंटों को गर्मी से बचाने व ऊंटनियों का दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए भी बस्तर की इमली कारगर होती है।
30 बस्तरिहा मैना
मैना की यह प्रजाति असम, अंडमान-निकोबार के अलावा दक्षिण भारत के केरल और मध्य भारत के उत्तरी आंध्र प्रदेश, ओड़िशा के मलकानगिरी और छत्तीसगढ़ के बस्तर में पाई जाती है। बस्तर के लोग प्यार से इसे बस्तरिहा मैना कहते हैं। राज्य पक्षी पहाड़ी मैना बस्तर की शान है। स्वभाव से बस्तर की मैना शर्मीली होती है और यह अपनी प्रजाति की दूसरी मैनाओं से इसलिए अलग है क्योंकि वह नकल करने में उस्ताद है। यह इंसानों की बोली हुबहू नकल कर सकती है। इसका रंग-रुप भी मैना की अन्य प्रजातियों से अलग होता है। बस्तरिहा मैना अपने जीवन काल में एक बार ही जोड़ा बनाती है। अगर अंडे से बच्चे पैदा नहीं हुए तो यह फिर अंडे देती है। नर और मादा मैना के आकार में कोई फर्क नहीं होता। विशेषज्ञ इनके व्यवहार के आधार पर लिंग की पहचान करते हैं। ये ज्यादातर बरगद, पीपल ओर सेमल के पेड़ पर रहना पसंद करती है। बस्तर क्षेत्र में एक कहानी प्रचलित है जिसके अनुसार भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जब बस्तर के दौरे पर आईं थीं, तब वे ओरछा और नारायणपुर भी गई थीं। कहते हैं कि इंदिराजी ने नारायणपुर के विश्रामगृह में जब अपनी ही आवाज़ सुनी तो वे कौतूहल से भर गईं। वह हैरान थीं कि यहां मेरी आवाज़ में बोलने वाला कौन है? उनके सामने पिंजरे में बंद बस्तरिहा मैना प्रस्तुत की गई। वन अधिकारियों ने पहाड़ी मैना की विलक्षणता के बारे में उन्हें बतलाया। पर उन्हें विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने मैना से स्वयं बातचीत की। उसने उनके संवादों को ज्यों का त्यों, उसी आरोह-अवरोह और बलाघात में दुहरा दिया। इंदिराजी ने जानना चाहा, कि इसे पहाड़ी मैना क्यों कहते हैं? क्योंकि ये पहाड़ों में रहती हैं, केवल बस्तर के पहाड़ों में। उन्हें बताया गया। क्या कोई मैदानी मैना भी होती है? उन्होंने फिर पूछा हां, होती है पर उसे कौंदी मैना कहते हैं। कौंदी अर्थात् गूंगी- उन्हें बताया गया। बस्तर की इस अनोखी मैना को सम्मान देने के लिहाज से छत्तीसगढ़ राज्य गठन होने के बाद उसे राज्य पक्षी का दर्जा दिया गया। वर्ष 2016 में भारतीय डाक विभाग ने लिफाफे (फर्स्ट डे कवर) पर बस्तर की मैना को जगह दी है। यह लिफाफा कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान और प्रधान डाकघर की ओर से इसे जारी किया गया। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। अनोखापन बस्तर की मैना की जान का दुश्मन बन गया। शिकारी और तस्कर उन्हें पकड़कर विदेशों में निर्यात करने लगे । आदिवासी और ग्रामीण अंचलों के लोग थोड़े से पैसों के लिए उन्हें पकड़कर शिकारियों को बेचने लगे।
सन् 1919 से 1950 के बीच इनकी खूब तस्करी हुई। परिणाम स्वरुप यह विलुप्त हो जाने की कगार पर पहुँच गई। आदिवासियों का प्रिय भोजन होने के कारण भी उसकी संख्या लगातार घटने लगी है। सरकार को देर से सही उसके विलुप्त होने का खतरा नजर आया और उसने लगभग 2 दर्जन पहाड़ी मैना जंगलों से लाकर उसका प्रजनन बढ़ाने की योजना पर काम शुरू किया है। जगदलपुर से महज 3-4 कि.मी. दूर वन विभाग ने साल के कुछ पेड़ों को चेनलिंक फेन्सिंग के जरिए प्राकृतिक रूप से पिंजरे का आकार दिया है और उसमें कुछ पहाड़ी मैना को रखा गया है। बताते हैं कि छत्तीसगढ़ के एक प्रभावशाली नेता ने उन्हों देखा और जब वे लौट रहे थे तो किसी पहाड़ी मैना ने गाली दे दी थी। सब हक्के-बक्के रह गए थे। पहाड़ी मैना वन कर्मचारियों की गालियां सुनकर सीख चुकी थी और उसे दोहराती भी थी। नेताजी नाराज भी हुए और पहाड़ी मैना की नकल करने की विलक्षणता से प्रभावित भी हुए। उन्होंने सबको जमकर फटकार लगाई। बस्तर के साल वनों में काफी भीतर कभी-कभार पहाड़ी मैना दिख जाती है। पहले दक्षिण बस्तर के जंगलों के अलावा छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्से में भी पहाड़ी मैना दिख जाया करती थी, लेकिन अब सरायपाली, बसना और सिहावा नगरी के इलाकों से ये विलुप्त ही हो चुकी है।